१८ महापुराणों में देवीपुराण की विशेष महिमा है।इसे ‘महाभागवत’ के नाम से भी कहा गया है।इस पुराण में ८१ अध्याय और प्राय: ४५०० श्लोक हैं।
इस पुराण के आदि उपदेष्टा महादेव भगवान् सदाशिव हैं।उन्होंने इसे देवर्षि नारद को सुनाया था।उसी महादेव-नारद-संवाद को महर्षि वेदव्यासजी ने महर्षि जैमिनी को सुनाया।उसके बाद इस कथा को लोमहर्षण श्रीसूतजी ने नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों को सुनाया।
इस पुराण के उद्भव के विषय में पुराण में एक रोचक कथा प्राप्त होता है , जो इस प्रकार है—
एक समय की बात है, नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषियों ने जब सूतजी से बड़े आग्रहपूर्वक इस पुराण की कथा सुनाने की प्रार्थना की, तब उन्होंने कहा–
जब भगवान् वेदव्यासजी ने अठारह महापुराणों की रचना कर ली, यहाँ तक कि श्रीमद्भागवत की भी रचना हो गयी और उनके हृदय में पूर्ण शान्ति नहीं प्राप्त हो सकी,तब वे देवी-मन्त्र का जप करते हुये हिमालय पर जाकर घोर तपस्या करने लगे।दीर्घकाल के तपस्या के पश्चात् देवी ने बिना प्रकट हुये ही आकाशवाणी की —
‘महर्षि ! आप ब्रह्मलोक जायँ, वहीं आपको मेरा दर्शन होगा और सारे रहस्यों का भी पता चल जायगा।’
तब व्यासजी ब्रह्मलोक गये, वहाँ उन्होंने मूर्तिमान् चारों वेदों को प्रणाम कर ब्रह्माजी से ब्रह्म पद की जिज्ञासा की।तब चारों वेदों ने क्रम-क्रम से देवी भगवती को ही साक्षात् परम तत्व बतलाते हुये कहा—
‘ आप अभी हमारे प्रयत्न से देवी का प्रत्यक्षरूप से दर्शन कर सकेंगे ‘
और फिर चारों वेदों ने मिलकर देवी की दिव्य स्तुति की।
परिणामस्वरूप ज्योतिस्वरूपा,सनातनी जगदम्बा प्रकट हो गयीं।
उनमें सहस्र सूर्यों की आभा, करोड़ों चन्द्रों की शीतल चन्द्रिका व्याप्त थी और वे सहस्रों भुजाओं में विविध आयुधों को धारण किये हुये दिव्य अलंकरणों से अलंकृत थी।
देवी का प्रत्यक्ष दर्शन कर और उनका रहस्य जानकर व्यासजी तत्क्षण जीवनमुक्त हो गये।
तत्पश्चात देवी ने उनकी मानसिक अभिलाषा जानकर उन्हें अपने पदतल में संलग्न सहस्रदलकमल का दर्शन कराया, जिसके सहस्रों पत्रों पर देवीपुराण (महाभागवतपुराण) दिव्याक्षरों में अंकित था ——-