आपत्सु मग्न: स्मरणं त्वदीयं ।
करोमि दुर्गे करूणार्णवेशि ।
नैतच्छठत्वं मम भावयेथा: ।
क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ।।
हे दुर्गे! हे दयासागर महेश्वरी ! जब मैं किसी विपत्ति में पड़ता हूँ , तो तुम्हारा ही स्मरण करता हूँ । इसे तुम मेरी धृष्टता मत समझना , क्योंकि भूखे – प्यासे बालक अपनी माँ को ही याद किया करते हैं ।
जगदम्ब विचित्रमत्र किं ,
परिपूर्णा करूणास्ति चेन्मयि ।
अपराधपरम्परावृतं न हि ।
माता समुपेक्षते सुतम् ।।
हे जगज्जननी ! मुझ पर तुम्हारी पूर्ण कृपा है , इसमें आश्चर्य ही क्या है? क्योंकि अनेक अपराधों से युक्त पुत्र को भी माता त्याग नहीं देतीं ।
मत्सम: पातकी नास्ति
पापघ्नी त्वत्समा न हि ।
एवं ज्ञात्वा महादेवी
यथा योग्यं तथा कुरू ।।
हे महादेवी ! मेरे समान कोई पापी नहीं है , और तुम्हारे समान कोई पाप का नाश करने वाला नहीं है , यह जानकर जैसा उचित समझो माँ! वैसा ही करो ।