हे दीन बन्धु दयालु गुरू, केहि भाँति तव गुण गाऊँ मैं ।
तुम्हरे पवित्र चरित्र केहि विधि , नाथ कहि के सुनाऊँ मैं।
जिह्वा अपावन है मेरी , गुरू नाम कैसे लीजिये ।
तन फँस रहा भव जाल में , गुरू ध्यान किस तरह कीजिये।
माता-पिता सुत भ्रात भार्या, कोई संग नहीं जायेंगे।
इस पाप कुंभी नर्क में, कोई न, हाथ बटाएँगे।
यह सोंचकर तव शरण आया, अब ठिकाना है नहीं।
बस पार कर दो मेंरी नौका, और अपना है नहीं।
गुरू बन्दनम, गुरू बन्दनम, गुरू बन्दनम।
(यह वन्दना प्रतिदिन मेंरे पिताजी ( स्वर्गीय चन्द्रशेखर प्रसाद ) द्वारा अपने गुरू को समर्पित की जाती थी।