श्यामसुन्दर अपने सखा से गैया चराते हुये कहते हैं, ‘ सखा सुबल, श्रीदामा, तुमलोग सुनो ! वृन्दावन मुझे बहुत अच्छा लगता है, इसी कारण मैं व्रज से यहाँ वन में गायें चराने आता हूँ।कामधेनु, कल्पवृक्ष आदि जितने वैकुण्ठ के सुख हैं,देवि लक्ष्मी के साथ वैकुण्ठ के उन सब सुखों को मैं भूल जाता हूँ।इस वृन्दावन में यहाँ यमुना किनारे गायों को चराना मुझे अत्यन्त प्रिय लगता है।कन्हैया अपने श्रीमुख से कहते हैं –‘ सखा तुमलोग मेरे मन को अति प्रिय लगते हो।गोपबालक यह सुनकर चकित हो जाते हैं ,कि श्रीहरि अपनी लीला का यह रहस्य उन्हें प्रत्यक्ष बतला रहे हैं।
गोपसखा हाथ जोड़कर कहते हैं—- ‘श्यामसुन्दर ! तुम हमें कभी मत भूलना। जहाँ – जहाँ भी तुम अवतार धारण करो, वहाँ – वहाँ हमसे अपने चरण छुड़ा मत लेना ( हमें भी साथ रखना ) ।’ श्रीकृष्णचन्द्र बोले—- ‘ व्रज से तुमलोगों को कहीं पृथक नहीं हटाऊँगा, क्योंकि यहीं , तुम्हारा साथ पाकर मैं भी व्रज में आता हूँ।व्रज के इस अवतार में जो आनंद प्राप्त हो रहा है, यह आनंद चौदहों लोकों में कहीं नहीं है।’ यह मोहन ने बतलाया तथा कुछ बालक लौटकर घर जा रहे थे , उनसे कहकर दोपहर का भोजन मँगाया तथा सब साथ हिलमिल कर भोजन का आनन्द लेने लगे।
सूरदासजी कहते हैं कि मेरे स्वामी कंधे पर काला कम्बल और हाथ में छड़ी लेकर वृन्दावन में गायें चराते हैं और
‘ काली ‘ , ‘ गोरी ‘ , ‘धौरी’ , ‘ धूमरी ‘ , इस प्रकार नाम ले – लेकर उन्हें पुकारते हैं। जहाँ – तहाँ वन – वन में गोपबालक के साथ गायों को ढूँढते हैं ।समस्त लोकों का नाथ होने पर भी हाथ से अपना पीताम्बर उड़ाकर गायों को संकेत देकर बुला रहे हैं।
‘ काँधे कान्ह कमरिया कारी , लकुट लिये कर घेरै हो ।
बृन्दाबन में गाइ चरावै , धौरी , धूमरी टेरै हो ।।
लै लिवाइ ग्वालनि बुलाइ कै , जहँ – तहँ बन – बन हेरै हो।
सूरदास प्रभु सकल लोकपति , पीतांबर कर फेरै हो ।।’