आने श्रीकृष्ण के भक्त रसखान एक मुसलमान व्यक्ति थे । एक बार वो अपने उस्ताद के साथ मक्का मदीना, हज पर जा रहे थे। उनके
उस्ताद ने कहा – देखो हिन्दुओं का तीर्थ स्थल वृन्दावन आने बाला है, वहाँ एक काला नाग रहता है। मैंने सुना है , नाग वृंदावन आने बाले यात्रियों को डस लेता है। इसलिये तुम सम्भल कर चलना ।इधर उधर ताक झाँक नहीं करना, सीधे मेरे पीछे-पीछे चलना।
इतना कहना था उस्तादजी का कि , रसखान को उत्सुकता होने लगी । उन्होंने सुन रखा था वृंदावन कृष्ण धाम है , फिर यहाँ नाग लोगों को कैसे डँस सकता है? यह सोचते हुए वो चले जा रहे थे कि बिहारीजी अपनी लीला प्रारम्भ करना शुरू कर दिये। प्रभु ने सोचा, देखूँ ये कब तक बिना इधर- उधर देखे बच सकता है।और फिर बिहारीजी ने अपने मुरली की प्यारी धुन छेड़ दिया। रसखान अभी बचने की कोशिष ही कर रहे थे कि प्रभु के पाँव की नुपुर भी बजने लगी । रसखान को अब अपने नियंत्रण रखना मुश्किल हो रहा था।उस्तादजी की काला नाग बाली बात भी याद आ रही थी, अब वो करे तो क्या करें ।मुरली तथा नुपुर की धुनें मन मुग्ध हुए जा रहा था। इतने में यमुना नदी आ गया, और रसखान देखे बिना नहीं रह सके। वहाँ श्रीबिहारीजी अपने प्रियाजी के साथ विराजमान थे। रसखान उनकी एक झलक पाकर मतवाले हो गए। मुरलीधर के युगल छवि के दर्शन पाकर वो भूल गए कि ख़ुद कहाँ हैं , और उनके उस्तादजी कहाँ गए ।रसखान अपना सुध-बुध खो बैठे ।उन्हें अपना ध्यान ही नहीं रहा । वे ब्रज की रज में लोट पोट हो रहे थे , मुँह से उनके झाग निकलने लगा ।इधर-उधर वो श्रीबिहारीजी को ढूँढने लगे ।उनकी साँवली छवि उनके आँखो से हट नहीं रही थी ।परन्तु प्रभु अपनी लीला कर अन्तर्ध्यान हो गए।
थोड़ी दूर जाकर जब उस्तादजी ने पीछे मुड़कर देखा, उन्हें रसखान कहीं नज़र नहीं आया, वो वापस पीछे आए, और उन्होंने रसखान की दशा देखकर समझ गए कि उन्हें कालिया नाग ने डँस लिया है और अब ये हमारे किसी काम के नहीं हैं।उस्तादजी रसखान को वहीं छोड़कर हज पर चले गए ।
रसखान को जब होश आया तो फिर वो कृष्ण को ढूँढने लगे।आस-पास आने-जाने वाले मुसाफ़िर से पूछने लगे , तुमने कहीं साँवला सलोना ,जिनके हाथ में मुरली है , साथ में उनकी बेगम भी हैं ,कही देखा है? वो कहाँ रहता है? किसी ने श्रीबाँकेबिहारीजी के मंदिर का पता बता दिया ।रसखान मंदिर गये , किन्तु मंदिर के अंदर पुजारी ने प्रवेश करने नहीं दिया। वो वहीं मंदिर के बाहर तीन दिनों। तक भूखे -प्याशे पड़े रहे। तीसरे दिन बाँकेबिहारीजी अपना प्रिय दूध-भात चाँदी के कटोरे में लेकर आए और उन्हें अपने हाथों से खिलाया।