मीरा हरि की लाड़ली, भगत मिली भरपूर ।
सांधा सूँ सनमुष रही, पापी सूं अति दूर ।।
सांधा सूँ सनमुष रही, पापी सूं अति दूर ।।
राना विष ताकौं दियो, पियो लै हरि नाम।
रातों कीनो भगत मुष, राखो नहिं भव काम ।।
जेठ कह्यो , देवर कह्यो, सास ननद समझाय।
मीरा महलन तज दियो , गोविन्द को गुन गाय ।।
पुष्कर नहाइ मगन मन, वृंदावन रसषेत।
गई द्वारिका अंत में, श्री रनछोर निकेत ।।
मेड्तनी के मन रही, एकै गिरिधर रेह ।
रोम रोम में रमि रह्यो, ज्यों बदरि जल मेह ।।
कान्हा चरणन में पड़ी, और न मोय सुहाय ।
कुँवरी दासी कृष्ण री, दर्शन दीजो आय ।।