हरितालिका ( तीज ) व्रत हिन्दी के भाद्रपद की शुक्लपक्ष तृतीया के दिन होता है।
कथा —– सूतजी बोले — जिन श्री पार्वती जी के घुँघराले केश मन्दार की माला से अलंकृत हैं और मुंडों की माला से जिन शिवजी की जटा अलंकृत है, जो ( पार्वती जी ) सुन्दर एवं नए वस्त्रों को धारण करने वाली हैं और जो ( शिवजी ) दिगम्बर हैं ऐसी श्री पार्वती जी तथा शिवजी को मैं प्रणाम करता हूँ।
कैलाश पर्वत के सुन्दर विशाल चोटी पर बैठी हुई श्री पार्वती जी ने भगवान शंकर से कहा —- हे महेश्वर! हमें कोई गुप्त व्रत या पूजन बताइये जो सभी धर्मों में सरल हो , जिसमें अधिक परिश्रम भी नहीं करना पड़े और फल भी अधिक मिले।हे परमेश्वर! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हों तो इसका विधान बताइये।तथा यह भी बताने की कृपा करें कि किस तप, व्रत दान से ,आदि , मध्य और अन्त रहित आप जैसे महा प्रभु हमको प्राप्त हुए हैं।
शंकर जी बोले—— हे देवि! सुनो मैं तुमको एक उत्तम व्रत जो मेरा सर्वस्य और छिपाने योग्य है तुम्हें बतलाता हूँ। जैसे नक्षत्रों में चन्द्रमा,ग्रहों में सूर्य,वर्णों में ब्राह्मण, देवताओं में विष्णु भगवान, नदियों में गंगा, पुराणों में महाभारत, वेदों मे सामवेद और इन्द्रियों में मन श्रेष्ठ हैं।सब पुराण और स्मृतियों में जिस तरह कहा गया है,मैं तुम्हे वह व्रत बतलाता हूँ ,तुम उसे एकाग्र मन से श्रवण करो।जिस व्रत के प्रभाव से तुमने मेरा आधा आसन प्राप्त किया है, वह मैं तुमको बतलाऊँगा।क्योंकि तुम मेरी अर्धांगिनी हो।भादो का महीना हो, शुक्ल-पक्ष की तृतीया तिथि हो, हस्त नक्षत्र हो, उसी दिन इस व्रत के अनुष्ठान से मनुष्यों के सभी पाप भस्मीभूत हो जाते हैं।
हे देवि! जिस महान व्रत को तुमने हिमालय पर्वत पर किया था, वह सब पूरा वृतान्त मैं तुमसे कहूँगा।श्री पार्वती जी बोली , हे नाथ! मैंने क्यों यह सर्वोत्तम व्रत किया था, यह सब आपसे सुनना चाहती हूँ।शिवजी बोले — हिमालय नामक एक उत्तम महान पर्वत है।उसके आस-पास तरह-तरह की भूमियाँ हैं।तरह-तरह के वृक्ष लगे हुये हैं।अनेकों प्रकार के पक्षी और पशु उस पर निवास करते हैं।वहाँ गन्धर्वों के साथ बहुत से देवता, सिद्ध, चारण और पक्षीगण सर्वदा प्रसन्न मन से विचरते हैं।वहाँ पहुँचकर गन्धर्व गाते हैं, अप्सरायें नाचती हैं ।उस पर्वतराज के कितने ही शिखर स्फटिक, रत्न और वैदूर्यमणि आदि खानों से भरे हुये हैं।उस पर्वत की चोटियाँ इतनी ऊँची हैं मानों आकाश को छू रही हों।उसकी सभी चोटियाँ सर्वदा बर्फ से ढकी रहती हैं और गंगा की जल ध्वनि भी सदा सुनाई देती रहती है।हे पार्वती! तुमने वहीं बाल्यावस्था में बारह वर्ष पर्यन्त कठोर तप किया और उसके बाद कुछ वर्ष केवल पत्ते खाकर रहीं।माघ महीने में जल में खड़ी हो तप किया और वैशाख में अग्नि का, तथा सावन में तुम भूखी-प्यासी रहकर तप करती रही।
तुम्हारे पिता तुम्हें इस प्रकार के कष्टों में देखकर बड़े दुखी हुये।वे चिन्ता में पड़ गये कि मैं अपनी कन्या का विवाह किसके साथ करूँ।उसी समय श्रेष्ठ मुनि नारद जी वहाँ आ पहुँचे।नारद जी को सम्मान के साथ आसन देकर आपके पिता पर्वत राज ने उनसे कहा , मुनिवर आप यहाँ आये, यह मेंरा सौभाग्य है।नारद जी बोले — हे पर्वत राज! मुझे स्वयं विष्णु भगवान ने आपके पास भेजा है।नारद जी ने कहा– आपकी कन्या, सामान्य कन्या नहीं है,इसलिये इसका विवाह किसी योग्य वर के साथ ही होना चाहिये।संसार में ब्रह्मा, इन्द्र, और शिव इत्यादिक देवताओं में भगवान विष्णु श्रेष्ठ माने जाते हैं ।अत:मेरी सम्मति में उन से ही अपनी कन्या का विवाह करना उत्तम है।पर्वतराज हिमालय बोले देवाधिदेव— भगवान विष्णु स्वयं मेरी कन्या का हाथ माँग रहे हैं और आप यह सन्देशा लेकर आये हैं , तो मैं अपनी कन्या का विवाह भगवान विष्णु के साथ ही करूँगा।यह सुनकर नारदजी वहाँ से अन्तर्धान होकर ,पीताम्बर, शंख, चक्र और गदाधारी भगवान विष्णु के पास पहुँचे।नारदजी ने हाथ जोड़कर भगवान विष्णु से कहा ——- हे देव! मैंने आपका विवाह निश्चित कर दिया है।
उधर हिमालयराज ने अपनी पुत्री पार्वती के पास जाकर कहा कि पुत्री! मैंने तुम्हारा विवाह भगवान विष्णु के साथ निश्चित किया है।तब पिता की बात सुनकर अत्यन्त दु:खी हो पृथ्वी पर गिर पड़ी और विलाप करने लगी।तुम्हारी सखियों ने यह सब देखकर तुमसे चुपचाप पूछा, हे देवि! तुम्हें क्या दु: ख है हमसे कहो,हमलोग यथाशक्ति उसका निवारण करने की कोशिष करेंगे।पार्वतीजी ने कहा— हे सखी! मुझे प्रसन्न करना चाहती हो तो मेरी जो कुछ अभिलाषा है उसे प्रेमपूर्वक सुनो।मैं एकमात्र शिवजी को ही अपने पति रूप में वरण करना चाहती हूँ,इसमें कुछ भी संशय नहीं है।परन्तु मेरे पिताजी मेरा विवाह भगवान विष्णु से करना चाहते हैं यदि एेसा हुआ तो मैं अपना शरीर त्याग दूँगी।
पार्वतीजी की बात सुनकर सखियों ने कहा,पार्वती! तुम घबराओ नहीं, हमदोनो तुम्हें यहाँ से निकालकर ऐसे वन में पहुँच जायेंगे,जहाँ तुम्हारे पिताजी हमें ढूँढ ही नहीं पायेंगे।शिवजी कहते हैं– देवि! ऐसी सलाह कर तुम अपनी सखियों के साथ वैसे घनघोर वन में जा पहुँची।इधर तुम्हारे पिता तुम्हें घर में न पाकर घर-घर तुम्हारी खोज करवाने लगे।दूतों द्वारा भी खोज करवाने लगे कि कौन देवता-दानव या किन्नर मेरी पुत्री को हर ले गया है।तुम्हारे पिता सोंचने लगे,कि अब मैं भगवान विष्णु को क्या उत्तर दूँगा , ऐसा सोंचते-सोंचते वे अचेत हो गये।पर्वतराज को मूर्छित देखकर सब लोग हाहाकार करते दौड़ पड़े, और चिन्ता का कारण पूछने लगे।गिरिराज ने कहा आप सब लोग मेरे दु:ख का कारण सुनो! मेरी पुत्री को न जाने कौन हर ले गया है अथवा काले सर्प ने डस लिया है, या ब्याघ्र ने खा लिया है।पता नहीं मेरी कन्या कहाँ चली गई।ऐसा कहकर वे पुन: दु:ख से वेचैन होने लगे।इधर अपनी सखी के साथ तुम भी उस भयानक वन में चलते-चलते एक ऐसे जगह पर जा पहुँची जहाँ एक सुन्दर नदी बह रही थी और उसके तट पर एक बड़ी गुफा थी। तुमने उसी गुफा में आश्रय लिया,और मेरी एक बालू की प्रतिमा बनाकर अपनी सखी के साथ निराहार रहकर मेरी अराधना करने लगीं।उस दिन भाद्र शुक्ल पक्ष की हस्तयुक्त तृतीया थी तब तुमने मेरा विधिवत् पूजन किया और रात भर जागकर भजन कीर्तन के साथ मुझे प्रसन्न करने में बिताया।
उस व्रतराज के प्रभाव से मेरा आसन डगमगा उठा।तब तत्काल मैं उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ तुम अपनी सखियों के साथ पूजा में मग्न थी।वहाँ पहुँकर मैंने तुमसे कहा कि मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, वर माँगो।तब तुमने कहा— यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे यह वरदान दीजिये कि मैं आपकी अर्धांगिनी बन सकूँ।मेरे ‘तथास्तु ‘कह कर कैलास पर्वत पर वापस आने पर तुमने मेरी मूर्ति का नदी में विसर्जन किया और सखी के साथ उस महाव्रत का पारण किया।तुम्हारे पिता भी तब तक तुम्हें ढूँढते हुये उस वन में आ पहुँचे।तुम्हें देखते ही उन्होंने तुम्हें अपने गले से लगा लिया और पूछने लगे ,पुत्री तुम सिंह,व्याघ्र आदि खतरनाक जंगली जानवरों से भरे वन में क्यों आ पहुँची।तुमने उत्तर दिया ,पिताजी! आप मेरा विवाह विष्णुजी के साथ करना चाहते थे परन्तु मैंने पहले ही शिवजी को पति रूप में वरण कर लिया है।तब पर्वतराज ने तुम्हें सान्त्वना दिया कि पुत्री तुम्हारी इच्छा के विरुद्ध तुम्हारा विवाह कहीं और नहीं करूँगा।तुम्हें अपने साथ घर ले आये और तुम्हारा विवाह मेरे साथ कर दिया।इसी से तुमने मेरा अर्धासन पाया है।
अब मैं तुम्हें यह बताता हूँ कि इस ब्रत का नाम हरितालिका क्यों पड़ा।तुम्हारी सखियाँ पिता के घर से तुम्हारा हरण कर ले गई थी, इसी से इस ब्रत का नाम हरितालिका पड़ा।पार्वतीजी बोलीं— हे प्रभो! कृपा करके इस ब्रत की विधि तथा इसके करने से क्या फल मिलता है यह भी बताने का कष्ट करें।शिवजी बोले— हे देवि! यह ब्रत सौभाग्यवर्धक है।जो स्त्री अपने सौभाग्य की रक्षा करना चाहती है, उसेइस ब्रत को करना चाहिये।इस ब्रत में शिवजी तथा पार्वतीजी की प्रतिमा बनाकर स्थापित करे तथा पुष्प धूप मिष्ठान तथा फल आदि से विधिवत पूजन करें , नारियल पान सुपारी श्रद्धापूर्वक अर्पित करें तथा पार्वतीजीके श्रृंगार की सभी आवश्यक वस्तुयें ( चुन्नी चूड़ी सिंदूर विन्दी आदि) चढ़ाएँ।
शिवजी तथा पार्वतीजी को श्रद्धा से दोनों हाथ जोड़कर नमन करें।फिर शिवजी तथा माता पार्वती की आरती करें।दूसरे दिन सूर्योदय से पहले पूजन कर अपना ब्रत समापन करना चाहिये।शिवजी तथा पार्वतीजी की प्रतिमा को नदी में विसर्जन कर ब्राह्मण को अन्न तथा द्रव्य दान देकर पारण करना चाहिये।
“जय भोलेनाथ जय माँ जगदम्बे।”