भेद नहीं करता मेरा कान्हा, है परखता भाव ही ।
जिस हाथ से माखन खाया, उस हाथ से ही तूने माटी भी ,
जिस स्वाद से छप्पन भोग लिये, उसी स्वाद से साग और रोटी भी ,
जिस मौज से खेले ग्वाले संग , उसी मौज से मारे असुर को भी ,
भेद नहीं करता मेरा कान्हा , है परखता भाव ही।
जैसा मान दिया यशोदा माँ को , वैसे ही देवकी माँ को भी ,
जिस प्रेम से ब्याहा राधे संग, उसी प्रेम से वर ली मीरा भी ,
जैसे हृदय से लगाया पार्थ को, वैसे ही मित्र सुदामा भी ।
भेद नहीं करता मेरा कान्हा, है परखता भाव ही ।
जिस शान से बैठे थे रथ पे, वैसे ही चराई गैया भी।
जिस शान्त चित्त से निकुंज बसे , वैसे ही रणभूमि मे भी,
जो मोक्ष दिया पांडव सेना को , वही कुरू सेना को भी ।
भेद नहीं करता मेरा कान्हा , है परखता भाव ही ।
(Kanupriya)