हिन्दू शास्त्रो में आय का दशमा हिस्सा धर्म कार्य में लगाने का विधान है।
दान देते समय मन में ये भाव होना चाहिये, कि जो मैं दान दे रहा हूँ,
ये सब कुछ ईश्वर का है, मैं निमित्त मात्र हूँ ,तो मन में अभिमान नहीं होगा।
उन पर ईश्वर की भी कृपा होगी,उनके घर में धन की भी कभी कमी नहीं होती है।
इसी संदर्भ में एक कहानी है, एक भक्त अपनी आय का दशमा हिस्सा
सदैव दान में लगाता था, ग़रीबों में भोजन तथा वस्त्र बाँटता था,लेकिन
बाँटते समय उसकी नजरें सदैव झुकी रहती थी।उसे ऐसा करते देखकर,
ईश्वर एक दिन साधू रूप में उस भक्त के घर भिक्षा माँगने पहुँचे,उस भक्त ने
फिर नज़रें नीची कर भगवान को भी भिक्षा दे दिया।भगवान ने पूछा, वत्स
ये चतुराई तुमनें कहाँ से सीखा? भिक्षा देते समय तो सभी की नज़रें उपर
होती है ,तुम नीची नज़रें किये सब को दान क्यों दे रहे हो? उस भक्त ने
बड़ा ही ख़ूबसूरत जवाब देते हुए कहा,महात्मा जी धन देने बाला तो
भगवान है, मैं उन्हीं के दिये हुए धन का कुछ हिस्सा लोगों में बाँट रहा हूँ,
और लोग मेरी जय -जयकार कर रहे हैं, इसलिये मेरी नज़रें झुकी जा रही है।
भगवान भक्त के उत्तर से प्रसन्न हो गए।उन्होंने असली रूप प्रकट कर भक्त को
दर्शन दिये तथा अपने हृदय से लगा लिया।